वो खादिम खड़ा है मज़ार पे दरबान बन तुझे आगे धकेलने को,

तू ज़लील हुआ है वहाँ हमेशा ही, तेरी वहाँ कोई इज़्ज़त नहीं।


इस जिल्लत के बाद भी तू झुकता है क़ब्र की चौखट पर,

ये हक़ीकत है वहाँ तुझे सुनने वाला कोई मौजूद नहीं।


जहाँ रब है तेरा रूबरुः तुझसे, बस एक तरीका नमाज़ है,

तेरे सजदे और ख़ुदा के दरमियाँ कोई दरबान, कोई हाजिब नहीं।


ना फूल चाहिए उसे तुझसे, ना चादर की दरकार है,

जो दाता है बस वो देता है, उसे तुझसे कोई हाजत नहीं।



ना दरगाह पर मिलेगी तुझे, ना बाबा की दहलीज़ पर शान वो,

जो देता है तेरा परवरदिगार मर्तबा तुझे, किसी और की ताक़त नहीं।


देता है इज़्ज़त अपने बंदों को वो इस तरहाँ,

बस वही एक दर है जहाँ रोकने वाला तुझे कोई खादिम नहीं,

बस वही एक दर है जहाँ तुझे टोकने वाला कोई मुजावर नहीं

@zakiashkim By Mohammed Zaki Ansari

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रिश्तों की राख — एक कविता

हँसी आती है इस दुनिया की हालत देख कर,
मैं हैरान हूँ, रिश्तों के गिरते म्यार को देख कर।

छलना है अपने ख़ून को, लोगों ने रिवायत बना ली है,
ममता की मूरत ने ज़ालिम की सूरत बना ली है।

अपनों ने ओछेपन की सारी हदें तोड़ दी हैं,
माँ तक ने उतार फेंकी ममता, चादर अहंकार की ओढ़ ली है।

अपने अहम् के आगे अब उन्हें कुछ नज़र नहीं आता,
बीमार से पूछते हैं,
“क्या तुमने हमारी ख़बर ली है?”

वो रोज़े, वो नमाज़ें, वो इबादत —
इससे ज़्यादा कुछ नहीं, बस है एक आदत।
सर सजदों में, और दिल ईमान से खाली है,
दीन को भी लोगों ने दिखावे की चीज़ बना ली है।

जो ख़ुद ज़ालिम हो,
वो कैसे ज़ुल्म पर बात करे?
ग़ासिब को कैसे तौफ़ीक़ हो,
कि वो अदल की बात करे?
ये गुमराही, एक बड़ी लानत है ख़ुदा की —
कुछ रियाकारों ने इसे अपनी क़िस्मत बना ली है।

दावा है जिनका कि वो क़ुरान तर्जुमा से पढ़ते हैं,
बोल कर झूठ, क्या ख़ुदा को भी वो ठगते हैं?
क़ुरान की आयतें भी उनके दिल ना बदल सकीं?
नाइंसाफ़ी उन्होंने अपनी फ़ितरत बना ली है।

मैं हैरान हूँ इंसान के गिरते हुए किरदार को देख कर।
झूठ, फरेब, मक्कारी, लालच, लोगों ने अपनी नियत बना ली है।
लोगों ने अपनी नीयत बना ली है...
छलना है अपने ख़ून को, लोगों ने रिवायत बना ली है,
ममता की मूरत ने ज़ालिम की सूरत बना ली है।

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