वो शख़्स कौन है?

वो शख़्स कौन है? .......


वो शख़्स उमर के आख़िरी लम्हों पर हैं
वो शख़्स जो आख़िरी सांसों की दहलीज़ पर है
झुकी हुई पीठ पर टूटते रिश्ते का बोझ लिए
वो शख़्स आज अपनों की ठोकरों पर हैं
उनकी नफ़रत ने शराफत का ख़ून कर दिया
बीवी और बेटे को गरूर ने गुमराह कर दिया
उनकी ज़िद इंसानियत के आख़िरी छोर पर है

आख़िरी सांसों पर अपनेपन का मरहम नहीं,
सांसें तो हैं, मगर इंसान की कोई अहमियत नहीं।
सरताज था जो शख़्स कभी इस दर पर,
आज जैसे बोझ बना हुआ है उसी घर पर।

जिस बेटे के दम पर बदले का दौर चल रहा है,
उस औरत से कोई पूछे - इसका बाप कौन है?
जिसकी कमाई से ये औलाद पली,
जिस की हिम्मत से बड़े इंग्लिश स्कूल में पढी 
वो शख़्स कौन है?

हां, वो बदज़ुबान था, मगर सवाल तो फिर भी है -
लादा था कभी ज़ेवर से जिसने, वो शख़्स कौन है?
तीखी थी ज़ुबान, फिर भी वही बना वजह
जिसके ज़रिए कराई ख़ुदा ने
सैर मक्का-मदीना की, वो शख़्स कौन है?

अमीरी, गरीबी, जैसे-तैसे बच्चों को पाला,
वही तो था शोहर - और कौन है भला?
कोई उस औरत से पूछे
क्या उसने कभी एक पाई भी कमाई?
क्या वो जानती है मज़दूरी क्या होती है?
सिलाई क्या होती है? मेहनत किसे कहते हैं?

क्या वो जानती है बुरे वक़्त में
शोहर का साथ कैसे दिया जाता है?
या उसे बस यही पता है -
के ज़ेवर बिकने पर,
शोहर को कैसे कोसा जाता है?

हाँ, वो बहुत बुरा था, मगर इतनी शराफत तो थी -
उसने कभी उस औरत से मज़दूरी नहीं करवाई।

जो कुछ बेचा ज़रूरत में, सब उसी का तो था,
जैसा भी सही, मगर फ़र्ज़ निभाया तो था।
मिटा कर हस्ती जिसने औलाद को पढाया तो था
वो एक, वही तो था ...
या पूछो उस औरत से - क्या वो शख़्स कोई और है?

सारी उम्मीदें, सारी आस उसी औलाद से जुड़ी थी
जो समझदार ज़ाहिर हुई.
जो आज पढ़ लिख कर
अब कुछ बन कर बाप पर दुश्मन की तरह हावी हुई

हर जुर्म के बाद भी एक रहमत जारी है,
उस शख़्स के सारे गुनाहों पर एक अमल भारी है,
गरीबी आई, मगर बेटे का स्कूल नहीं छुड़वाया 
किताबों के सिवा कोई और बोझ नहीं उठवाया

बदल गया वक़्त तेज़ी से, एक नई शुरुआत हुई
औलाद काबिल हुई तो
उसकी नफ़रत शोहर पर असरदार हुई,

अपने शौहर से हर गाली का,
अब हिसाब माँगने का वक़्त था -
अब उस औरत के बदले का वक़्त था।
उसकी नफ़रत भी अब खुल कर रोशन जहां हुई,
अब वो बेटे के साथ मिल कर ग़ाफ़िल हुई।

वक़्त कुछ इस तरह जवाब दे रहा है
अस्सी साल का बुज़ुर्ग, गुनाहों का हिसाब दे रहा है

शोहर से अलग, वो अमीर बेटे के साथ रहती है।
दोशाला मे लिपटी ज़िल्लत ख़ुशी से उठाती रहती है
शौहर इस उम्र मे अपने कपडे ख़ुद धोता है
वो चहेते बेटे और बहू की ख़िदमत करती रहती हो।

बेटे के घर में बाप के लिए जगह नहीं है
मां वहां खुश है - उसे कोई परवा नहीं है।
मेहमानों के सामने जब घर में बुज़ुर्गी दिखानी होती  है 
बस उसी वक़्त अब उस शौहर की ज़रूरत होती है

नामाये-आमाल में ये कुछ सहारा कर दे,
शायद ये ज़ुल्म उस शख़्स पर,
उसके गुनाहों का कफ़्फ़ारा कर दे।

उसकी बारी पर क़िस्मत उसे मौका क्या देगी?
कल वो औरत अपने गुनाहों का कफ़्फ़ारा क्या देगी?
कल वो औरत अपने गुनाहों का कफ़्फ़ारा क्या देगी?
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